मंच पर सक्रिय योगदान न करने वाले सदस्यो की सदस्यता समाप्त कर दी गयी है, यदि कोई मंच पर सदस्यता के लिए दोबारा आवेदन करता है तो उनकी सदस्यता पर तभी विचार किया जाएगा जब वे मंच पर सक्रियता बनाए रखेंगे ...... धन्यवाद   -  रामलाल ब्लॉग व्यस्थापक

हास्य जीवन का अनमोल तोहफा    ====> हास्य जीवन का प्रभात है, शीतकाल की मधुर धूप है तो ग्रीष्म की तपती दुपहरी में सघन छाया। इससे आप तो आनंद पाते ही हैं दूसरों को भी आनंदित करते हैं।

हँसे और बीमारी दूर भगाये====>आज के इस तनावपूर्ण वातावरण में व्यक्ति अपनी मुस्कुराहट को भूलता जा रहा है और उच्च रक्तचाप, शुगर, माइग्रेन, हिस्टीरिया, पागलपन, डिप्रेशन आदि बहुत सी बीमारियों को निमंत्रण दे रहा है।

सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

आज के रावण




आज के रावण

रामचंद्र जी मार चुके हैं,
त्रेतायुग में रावण को,
आज रावणी मार रही है,
कल युग में भी जन जन को.

सीताहरण पर श्रीराम ने,
रावण को मार गिराया है,
खुशियाँ मनाने हर वर्ष ,
जनता ने रावण को जलाया है.

बचपन में लगता था यह तो,
हर्षोल्लास का प्रतीक है,
अब बोध होने लगा,
यह बस केवल लीक है.

शारीरिक रावण तो मर गया,
पर मन का रावण मरा नहीं,
रावण के जलने से ये,
बन धुआँ हवा में समा गईं.

परिणाम, अनेकों रूपों मे,
रावण, फिर-फिर पनप गए,
नाम अलग हैं,
काम अलग हैं,
सबमें कुछ कुछ.
रावणी बुद्धियाँ समा गईं.

और ये सब उभरते रावण,
हर बरस इकट्ठा होते हैं,
हर बरस हर्ष मनाते हैं,

एक रावण का पुतला खाक कर,
अनेकों रावण के पैदा होने का,
मिलकर जश्न मनाते हैं.

अच्छा होता,
रावण के साथ, हर बरस,
रावणी प्रवृत्तियां भी जल कर,
खाक हो जातीं,
तो आज भारत में,
रावण की नहीं,
राम की धाक हो जाती.

जो हो रहा है,
इससे यह पैगाम उभरता है,
रावण का पुतला ही जलता है,
पर रावण कभी न मरता है.

रावण दहन सालाना होता,
नहीं रावणी मरती है,
रावण अमर, नहीं मरता है,
यही दास्तां कहती है.

अब सैकड़ों रावण मिल कर,
जलाते हैं एक रावण को,
जानते हुए भी अनजान हैं कि,
एक जल गया तो कुछ नहीं,
कई और उभरेंगे,
सोचना-समझना नहीं चाहते कि,
अपने अंदर के रावण को कब जलाएँगे,
डरते भी नहीं हैं कि,
कहीं, हम रावण तो नहीं कहलाएँगे.
..............................................
अयंगर 27.10.2011.
कोरबा.

रविवार, 23 अक्तूबर 2011

भ्रष्ट-व्यंग-दोहे ।





भ्रष्ट-व्यंग-दोहे ।


आज के हालात के अनुरूप, यथार्थ, भ्रष्टाचारी-व्यंगात्मक दोहे. .!!

(१)


* आदरणीय श्रीअण्णाजीके दल में घूसे हुए, तकसाधुओं को समर्पित...!!


अण्णा अण्णा सब जपे, देखत है सब ताल,

मौका जिसको जब मिले, एंठत है सब माल ।


(२)


* जेल के बजाय आज भी, जो नेता महलमें एश कर रहे हैं, उनको समर्पित..!!


भ्रष्टाचारी मत कहो, लेता कभी - कभार,

बकते हैं जो बकबकें, भरता उदर अपार ।


(३)


* भ्रष्टाचार के विरूद्ध आंदोलन कर रहे, कार्यकर्ता पर, हिंसक हमला करनेवालों को समर्पित..!!


बजरंग तो बदल गए, कलयुग गयो समाय,

लंकादहन को भूल ये, अवध को ही जलाय ।


(४)


* पार्टी फंड एंठनेवाले, राष्ट्रिय पक्षों के शिर्षस्थ नेताओं को समर्पित..!!


उजला - काला सब किया, कछु न दरद मन जान,

परम-धरम तो नक़द है, घूसखोरी करम सुजान ।


(५)


* ग़रीब जनता का लहु पीनेवाले, सभी राजनेताओं को समर्पित..!!


धन - दौलत की लत लगी, पूजत है दिन रात,

नेता बेचारा क्या करें, बिनु मांगे मिल जात ।


(६)


* हरदम दंभी प्रामाणिकता का राग रटनेवाले, सभी लोगों को समर्पित..!!


धन को काला मान के, जनता बहुत पीड़ाय,

सुख तो नेता-घर बसे, बैठा अलख जगाय ।


(७)


* जेल में बैठ कर, बिना ड़रे, मौज उड़ा रहे, सभी भ्रष्टाचारीओं को समर्पित..!!


लक्ष्मी की नाराजगी, घर खाली कर जाय,

भ्रष्टाचारी ना डरे, सब कुछ अपहर जाय ।


(८)

चुनाव के वक़्त घर बैठ कर, वोटिंग न करनेवाले, सभी नागरिको कों समर्पित..!!


टेबल - टेबल घूम के, बांटो तुम परसाद,

बच्चें भूखों जब मरे, मत करना अवसाद ।

(अवसाद = विषाद)


मार्कण्ड दवे । दिनांक- २१-१०-२०११.

--

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2011

स्वतंत्र


भारत गणतंत्र हमारा,
ऐसा जनतंत्र हमारा,
जनता पर तंत्र हमारा,
यह है स्वातंत्र्य हमारा.

करते हैं शांति की बातें,
वैसे हम भ्रांति फैलाते,
चादर जितना भी होवे,
पूरे हम पैर फैलाते.

करते हैं जो करना हो,
कहते हैं जो कहना हो,
कथनी करनी में अपनी,
समता हो तो बतलाएं.

भारत के भाग्य विधाता,
ऐसी है आज की गाथा,
जिसको, जो भी मिल जाता,
उसको वह खा पी जाता.

इसका कोई दंड बनाओ,
या फिर कोई फंड बनाओ,
जितना खाने मिल जाए,
मिल जुल कर बाँट के खाओ.

.......................................
एम.आर.अयंगर.

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

ठोकर न मारें...

ठोकर न मारें

दिखाकर रोशनी, दृष्टिहीनों को,
और प्रदीप्यमान सूरज को,
रोशनी का तो अपमान मत कीजिए !!!

और न ही कीजिए अपमान,
सूरज का और दृष्टिहीनों का.

इसलिए डालिए रोशनी उनपर,
जिन्हें कुछ दृष्टिगोचर हो,
ताकि सम्मान हो रोशनी का,
और देखने वालों का आदर.

एक बुजुर्ग,
जिनकी दृष्टि खो टुकी थी,
हाथ में लालटेन लेकर,
गाँव के अभ्यस्त पथ से जा रहे थे,

एक नवागंतुक ने पूछा,
बाबा, माफ करना,
दृष्टिविहीन आपके लिए, इस
लालटेन का क्या प्रयोजन है ?

बाबा ने आवाज की तरफ,
मुंह फेरा और बोले –

बेटा तुम ठीक कहते हो.
मेरे लिए यह लालटेन अनुपयोगी है,
फिर भी यह मेरे लिए जरूरी है.

ताकि राह चलते लोग,
कम से कम इस लालटोन की,
रोशनी में देखकर,
मुझ जैसे  बुजुर्ग को—
ठोकर न मारें.

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011

मुर्दा नाचा



कल के उस फिल्मी दौर को,

याद करने से दुख होता है कि

हम आज कहाँ हैं ?

समाज का वह दर्पण जिसे

फिल्मी साहित्य के नाम से जानते हैं,

आज बाजारु हो गई है,

जिज्ञासा को परत दर परत ,

नोंच-नोंच कर आवरण रहित कर दिया है,

अर्धनग्नता की कामुता को,

नग्नता ने अश्लील बना दिया है।

हीरो व विलेन में अन्तर उतना ही बचा है,

जितना हीरोइन व कैबरे डाँसर में रह गया है।

गानों के वे वर्णछंद राग व वे चित्रण,

अब नहीं मिलते,

जिसमें कविता का आनंद था,

साहित्य का भी मान था,

राग की सलिलता थी,

और चित्रण, भावों को

आपस में बाँधने वाला माध्यम।
 
इससे हर तरह से आनंदमय

वातावरण बन जाता था।

सभी पारिवारिक सदस्यों के साथ

फिल्म देखने का,

एक अनूठा आनंद था,


अब या तो प्रेमी प्रेमिका,

या फिर पति पत्नी ही फिल्म को ,

साथ बैठ कर देख सकते हैं,

कॉलेज से भाग कर जाने वाले

छोरे छोरियों की छोड़ो,

दलों का मजा लेने वाले,

दलदल में भी खुश रहते हैं.


और कोई पारिवारिक सदस्य गर

साथ साथ फिल्म देखें तो-

क्या होगा ..

शायद भगवान भी

जानना नहीं चाहेगा।

गीत के बोल बातूनी,

छंद-लय की कहा सुनी, सुनी

ताल, बेताल के,

और साज होगा जाज,

तारतम्यता लुप्त,

तौहीन साहित्य का,

सुप्तावस्था भी नयन फोड़,

खड़ी हो जाती है।


उन पुरीने गीतों की,

उनके लय की,

मधुरता और प्रवाह,

मानसिक शांति देती है,

और तन मन को तनाव मुक्त कर,

शवासन प्रदान करती है।


और आज ?


शायद मरघट पर,

आज के गीत बजाए जाएँ तो,

मुद भी खड़े होकर नाचने लगेंगे।
......................................