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रविवार, 27 मार्च 2011

कनपुरिया होली .......

हरीश प्रकाश गुप्त जी की यह पोस्ट हमने हमारे ब्लॉग ‘मनोज’ पर लगाया था। आज इसे

हास्य व्यंग ब्लोगर्स महासभा में पेश कर रहा हूं। क्योंकि यह आपके चेहरे पर एक मुस्कुराहट लाने का प्रयास, हँसे क्योंकि इससे तनाव दूर होता है और स्वास्थ्य उत्तम रहता है..

व्यंग्य

कनपुरिया होली .......

हरीश प्रकाश गुप्त

यदि आप हमारे कानपुर नगर के इतिहास, भूगोल और संस्कार से परिचित नहीं हैं तो मान लीजिएगा कि आपकी जानकारी का लेविल कुछ कम है। बात कुछ कड़क लग रही हो तो कृपा करके इसे थोड़ा घुमाकर समझ लीजिए। यह आपका ही काम है। लेकिन सच तो सच ही है। हो सकता है कि आपने अभी तक इस शहर के दर्शन ही न किए हों। यह भी हो सकता है कि आपने यहाँ की पावन महिमा का बखान किसी के श्रीमुख से सुन रखा हो। फिर भी, यदि यह सच है तो आप अभी तक इस धरती की रज से पवित्र हुए बिना ही शेष धरा पर विचरण कर रहे हैं।

बात यदि दो चार सिद्धियों की हो तो उनका क्रमशः वर्णन कर दिया जाए। लेकिन यहाँ तो हरि अनंत “हरि कथा अनंता” की भाँति कोई ओर-छोर ही नहीं है। विश्वास नहीं तो आप कश्मीर से कन्याकुमारी तक अथवा कोटा से कोलकाता तक के रास्ते में कहीं भी कानपुर की चर्चा छेड़ दीजिए। बस। आपको अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रहेगी। आपके इर्द-गिर्द दो चार विद्वतजन जरूर मौजूद होंगे जो यहाँ की महिमा को अनेकानेक विशेषणों से विभूषित करते हुए विभिन्न उद्धरणों की मदद से इति सिद्धम करते हुए अविराम गतिमान रखेंगे।

यहाँ प्रसंग को आप अन्यथा न लें। मतलब वृत्तांत की दिशा आज वह नहीं है जिसे आप समझ बैठे। यहाँ पर बात होली की हो रही है। केवल होली की। दुनियाँ भर में अगर यहाँ और बरसाने की होली को छोड़ दें तो बाकी जगह होली तो बस हो ली की तरह बीती बात की तरह होकर रह जाती है। बरसाना तो ठहरा राधा जी का मायका। वहाँ की बराबरी कौन करे। वहाँ के लोग आज भी इसे दिल से मनाते हैं। महीने भर होली मनाते हैं कि कन्हैया आवें और पूरा गाँव उन्हें रंग में डुबो-डुबोकर होली खेले। लेकिन पहुचते हैं वहाँ ढीठ गोकुल वाले। सबके सब अपने को कृष्ण कन्हैया समझ बरसाने की ग्वालनों का सामीप्य और स्पर्श पाने का सपना संजोए पँहुच जाते हैं हर बार। अब वो द्वापर वाली ग्वालनें तो हैं नहीं, जो वंशी की तान सुनते ही अपना सब कुछ बिसराकर खुद ही समर्पण करने चली आवेंगी। भगाने के कितने उपाय तो कर लिए उन्होंने। होली के नाम पर नए नए हथकण्डे तक ईजाद कर लिए, मसलन लट्ठमार होली, कपड़ाफाड़ होली, कोड़ामार होली आदि, आदि। अभी बरसाने वालियों पर से देश की संस्कृति, मर्यादा और परम्परा का भार पूरी तरह उतरा नहीं है सो गज भर का लम्बा घूँघट काढ़कर गोकुल वालों पर लट्ठ बरसाती हैं कि एक-आध सही जगह पड़ जाए तो अकल ठिकाने आ जाए। हो सकता है कि उनके इस कला में पारंगत होने के कारण ही उनके गाँव का नाम बरसाना पड़ा हो। वे गोकुलवालों के कपड़े फाड़-फाड़कर अधनंगा कर भिगो-भिगो कर कोड़े मारती हैं । लेकिन गोकुलवासी इसे अपनी लज्जा से न जोड़ते हुए प्रेमरस भरे रंग की फुहार मान वापस लौट जाते हैं अगली बार अधिक जोश और उल्लास से सराबोर होकर वापस आने का संकल्प लेकर। शायद अगली बार सफल हों। तो देखिए कनपुरिया होली का रंग।

दृश्य - 1

कनपुरियों का कहना है कि होली में गोकुलवासियों को लज्जा नहीं आती तो हमें काहे की लज्जा। आनी भी नहीं चाहिए। कैसा भी कर्म हो, बस संकल्प के साथ किया जाए। और यह नगरी कोई भगवान की नगरी तो है नहीं। न द्वापर के कृष्ण की, न त्रेता के राम की। ये नगरी है छज्जू और बाँके की। बरसाने में रंग एक महीने चलता है तो होली में रंग यहाँ भी हफ्ते भर से कम नहीं चलता और छज्जू, बाँके की रंगबाजी भी कुछ कम नहीं चलती। हफ्ते भर की होली में मार्केट-वार्केट सब बन्द। प्रतिदिन आठ से बारह का टाइम शेड्यूल रहता है होली का। खूब खेलो। होली कम हुड़दंग ज्यादा। व्यापारी लोग भी सोचते हैं कि अपनी तहस-नहस कौन कराए और सरकारी विभागों की त्यौहारी वसूली से नोच खसोट कौन कराए। सो जिनका बस चलता है, निकल लेते हैं वार्षिक छुट्टी पर सैर करने। पुलिस प्रशासन अमला जमला मुस्तैद रहता है, चौक चौराहे या मेन मेन लोकेशन्स पर, ताकि दिखे कि वे मुस्तैद हैं। गलियाँ जाएं चूल्हे भाड़ में।

बस यही वो पेच है जिसकी आस छज्जू, बाँके को खास रहती है पूरे साल भर। दोनों के पेशे अलग अलग हैं। पेशा कोई खास नहीं। एक सरकारी विभाग में मुलाजिम है पाव टके दर्जे का। लेकिन विभाग धमकदार है। आई मीन, हिन्दी में कहें तो तीस तारीख की पगार चायपानी और एक आध बैठकी में ही पानी माँग जाती है। लेकिन उसकी फिकर किसे है। जब भी जेब हलकी लगी, घुस लिए किसी फर्म, फैक्टरी, दुकान, दालान का इन्सपेक्शन करने। विभाग का रसूख और बड़ी बड़ी मूँछों का मायाजाल ऐसा कि तुम्बा भी गुलदार सी बातें करना न भूले। बस अपना मान सम्मान अँजुरी में सामने रखकर चलना होता है।

होली की साप्ताहिक बन्दी में व्यस्तता कुछ अधिक ही बढ़ जाती है। रात बारह बजे तक पार्टियों के साथ चाही अनचाही बैठकें चलती हैं तो दिन के बारह तक आफिस में नींद के झोके। होली दीवाली ही तो पेशे की सहालग हैं, सो वह चैन-सुख और नैन-निद्रा को खूँटे से बाँध निकल पड़ता हाड़ तोड़ मेहनत के लिए। सो वह मेहनत एक बार फिर हाड़ तोड़ साबित हुई।

दो दिन बाँके नहीं दिखा तो छज्जू ने उसकी खैर खबर ली। बिस्तर पर बाँके। पैर में पलस्तर। टाँग आसमान की ओर उठी और दो ईंटों के ट्रैक्सन से खिंची। दो्स्त को देखा तो भावुकता में नैनों से नीर नदी सा बह निकला। उसकी घरवाली पड़ोसन को बता रही थी – किसी ने इनके स्कूटर में पीछे से टक्कर मार दी। देख तक न पाए। यह टाँग तीसरी बार उसी जगह से टूटी है। हाय री किस्मत। रंग का त्यौहार ही बदरंग हो गया।

वही टाँग, वही जगह, वही चोट ... वही छुट्टियाँ। छज्जू ने अश्रुधारा पर एक बार फिर दृष्टि डाली और इसके उद्गम के विषय, आहत और आह का विश्लेषण करने लगा। फिर उसने मसखरी के अन्दाज में एक प्रश्न उछाल दिया “यार मुझे तो सच बताओ। गए कहाँ थे. कहीं फिर वहीं पुराने जाजमऊ में, नफीस कटोरी के दालमिल कम्पाउण्ड में टेढे नाले के पास ......” “कभी चुप भी रहा करो। इज्जत पर पलीता लगाकर ही दम लोगे क्या. अरे यहाँ पर तो कुछ ढका छुपा रहने दो।” कहकर बाँके वर्तमान में आया और चेहरे पर कस के गमछा रगड़ लिया।

दृश्य -2

आज होली मेला है। दिन में खूब रंगबाजी हुई है। सड़कें हुसैन की चित्रकारी सरीखी रंगी हैं। नालियों में आज गंदे पानी पर रंग सवार होकर बहा है। कहीं तो सड़कें और दीवारें अभी तक सूख भी नहीं पाई हैं। लोगों ने शाम को मेला की तैयारी में खुद को रगड़-रगड़ कर साफ किया है तो कुछ का चेहरा जैसा अब जान पड़ने लगा है वर्ना सुबह तो पहचानना कहाँ से शुरू करें, यही तय करना मुश्किल हो रहा था। रंग के ठेले में जो गुम हो गया, सो हो गया। सभी लाल, हरे, पीले, काले रंग में डूबे पुतले की तरह ही जान पड़ रहे थे।

गोधूलि की बेला होने को है। पतित पावनी गंगा के तट पर भारी भीड़ जमा है। धुले, उजले, नवीन, रंगीन परिधानों में अधरंगे, रंग अभी तक पूरी तरह छूटा नहीं है, चेहरों वाले लोग किसी विशिष्ट समुदाय अथवा आधुनिक वस्त्रों में सुशोभित दूरदराज की वनजातियों के समूह से लग रहे हैं। बहुत चहल-पहल है। कहीं संगीत का कार्यक्रम चल रहा है, तो कहीं होली के लोकगीत का। कहीं बच्चे भी उत्साह से उल्लास में शामिल हैं। जगह-जगह छोटे बड़े टेन्ट, तम्बू, पाण्डाल, और शिविर लगे हैं। अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार। शासन-प्रशासन का टेन्ट, राजनीतिक, सामाजिक संगठनों के पाण्डाल, विभिन्न समुदायों, वर्गों, जातियों के तम्बू और स्वयंसेवी संस्थाओं के शिविर। सभी ने होली मिलन समारोह में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। थालियों में एक ओर अबीर और गुलाल सजा है, तो दूसरी ओर जलपान के लिए तमाम आइटमों के साथ गुझिया नवयौवना सी इतरा रही है। मिलन में अब सूखे रंग का तिलक ही लगेगा। तरल में ठण्डाई मिलेगी, हरी वाली भी। पीछे वाली लेन के और पीछे मेज के नीचे माधुरी भी उपलब्ध है, लेकिन यह केवल विशेष पास धारकों के लिए ही है।

इस भीड़-भाड़ से थोड़ा हटकर गंगा की तरफ एक तखत पड़ा है। उधर ज्यादा लोग नहीं आ-जा रहे हैं। दस-बीस लोग ही बैठकी लगाए हैं। आज तो सभी एक रंग में ही रंगे नजर आ रहे हैं, तो फिर ऐसा रंगभेद क्यों। लोग उस समूह से इतनी दूरी क्यों बनाए हैं। उत्सुकता ने कदमों को उधर ही खदेड़ना शुरू कर दिया। यह क्या ? देखा तो पहले आँखों पर विश्वास ही न हुआ। सब रंगों के मिक्स्चर से रंगे-सने काले कलूतड़े टेक्स्चर का एक व्यक्ति हिप-हिप-हुर्रे और यप्पी-यप्पीईई करते हुए पास आया और एक हाथ में हरी-हरी बड़ी सी गोली रखते हुए दूसरे हाथ में एक गिलास ठण्डाई पकड़ा गया। फिर कान में फुसफुसाया “ठण्डाई विद करण”। तभी बुर्राक सफेद कुर्ता पायजामें में एक सज्जन नदी की ओर से आते दिखाई दिए। धीरे-धीरे वे पास आ रहे हैं। शक्ल तो कुछ-कुछ करण जैसी ही लग रही है, रंगीन टेक्स्चर वाली। केवल कुर्ता पायजामा से तो पहचान होती नहीं, परंतु गीली मिट्टी पर उनके पैरों के निशान साफ दिख रहे हैं। पता चला कि कोई पहचान ही नहीं पा रहा था इसलिए नदी के पानी में अपना चेहरा एक बार फिर साफ करने गए थे। मनोज जी हैं भाई।

तखत पर आचार्य राय जी विराजमान हैं। आज उनका व्याख्यान काव्यशास्त्र पर नहीं हो रहा है। बताते हैं करण ने ओवर डोज दे दी है। होली के दिन बात हुई थी तो करण ने कहा था सारी भाँग रख दी है अगली होली के लिए। इसी विश्वास में आचार्य जी चार गिलास गटक गए। एक जिज्ञासु पधारे हैं जो उनकी शिष्यता और सान्निध्य पाने के उपक्रम में उन्हें प्रभावित करने के लिए उनसे प्रश्न पर प्रश्न किए जा रहे हैं और आचार्य जी हैं कि उन्हें टाल रहे हैं। उनका फिर एक प्रश्न आया – आचार्य जी ज्ञानचंद और मर्मज्ञ में क्या अंतर है, क्या दोनों का अर्थ एक सा नहीं है। यदि ऐसा है तो इनके एक साथ प्रयोग में पुनरुक्ति दोष नहीं होगा। इस बार आचार्य जी से नहीं रहा गया, बोले – वत्स, इसका लक्षण न तो पंडितराज जगन्नाथ ने रस गंगाधर में दिया है, न आनन्दवर्धन ने ध्वन्यालोक में। आचार्य ममम्ट भी इस पर मौन हैं। इसकी व्याख्या आधुनिक भृंग सम्प्रदाय के आचार्य ही कर सकते हैं। इनके आदि आचार्यों का तो ज्ञान नहीं। इनके कुछ शिष्यों में करण आदि का नाम आता है। इनका निवास बंगलौर के आसपास है। वैसे, प्रश्न किया है तो इसका विस्तृत उत्तर इसी मंच से अगली होली के अवसर पर दिया जाएगा। तब तक प्रतीक्षा करें।

अरुण राय ने खाँटी देशज अंदाज में होली खेली है, गोबर से। अपनी कमीज खराब न हो इसलिए बाबूजी की कमीज कल से ही पहने घूम रहे हैं। इस बार एक तो खोए के भाव आसमान को छू गए, ऊपर से मिलावटी खोए से दुखी होकर उन्होंने तय किया कि बिना खोए की, केवल चीनी की ही गुझिया बनेगी। जिसने भी उनकी गुझिया खाई गीली चीनी का स्वाद बहुत भाया। एक बुजुर्ग महिला संदूकची लेकर पधारी हैं। उन्होंने तखत पर संदूकची खोल कर पलट दी है। गुझिया, पापड़, चिप्स वगैरह सहित तरह-तरह के नमकीन व मीठे स्नैक्स का ढेर लग गया। धुंधलका होना शुरू हो गया है। दिन के स्वामी अर्थात भगवान भास्कर अस्ताचलगामी हो रहे हैं। लोगों की मस्ती गहराती जा रही है। तभी, जिसे लोग अभी तक रंग का ढेर समझ रहे थे, उसमें कुछ हलचल हुई। रंग झड़ा तो बड़ी-बढी दाढ़ी और बड़े-बड़े बालों वाले व्यक्ति का आकार उभरा। जब उन्होंने अपने सिर को एक बार और झटका दिया तो आकृति कुछ स्पष्ट हुई। लेकिन यह अभी भी सभी ब्लागर्स की समझ से बाहर थी। मैंने आवाज लगाई। अरे भई, दादा श्याम सुन्दर चौधरी हैं। कुछ ज्यादा ही चढ़ गई थी, करण के रहमो करम से। अच्छी तरह पहचान लीजिए। जल्दी ही इनसे आपकी फिर भेंट होने वाली है। अब हम लोग भी चलते हैं। फिर मिलेंगे। आप सबको होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं।

5 टिप्पणियाँ:

ब्लॉग बहुत अच्छा लगा।

जिसे देखो वही अपने शहर, अपने मित्र और अपनी होली को सबसे अच्छा कहता है। यह कोई रोग तो नहीं है ?

क्या बात है , होली अभी तक चल रही है , बढ़िया

@ मनोज जी,

हास्य व्यंग्य के इस ब्लाग पर यह आलेख प्रकाशित करने के लिए आपका बहुत आभारी हूँ।

@ देवेन्द्र जी,

यहाँ अपनी होली को सबसे अच्छा साबित करने जैसी कोई बात नहीं है। यह एक आलेख मात्र है।

रही बात कानपुर की होली की, तो अगली होली में आप कानपुर आकर अपनी आँखों से देखकर निर्णय करें। इसके लिए मेले वाले दिन आपको 10 से 12 बजे के बीच हटिया, कलक्टरगंज, जनरलगंज, हालसी रोड, बिरहाना रोड आदि पुराने क्षेत्रों में भ्रमण करना होगा। आपका फैसला सिर आँखों पर होगा।

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