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मंगलवार, 2 अगस्त 2011

शीला के शब्‍दों की जवानी

दिल्ली की सीएम को टारगेट करके दिल्ली के लोकायुक् ने आरोपों की बौछार कर दी है लेकिन उन्होंने बुरा मानते हुए जो सहज बयानी की है वो कितनी सरल है कि उन पर आरोप लगाए जा रहे हैं और वे हंसी-खुशी बिना बुरा माने जवाब दे रही हैं।

आप भी इसका भरपूर जायजा लीजिए। उनकी सोच है कि अगर आरोप लगाने वाले का कर्म आरोप लगाना है तो उनका धर्म लगाए गए आरोपों का उचित जवाब देना है। सकारात्मक सोच की धनी सीएम पर लगाए गए आरोप तो आप अब तक अखबारों में पढ़ ही चुके हैं, उसी संदर्भ में उनकी प्रतिक्रिया पेश है। उनका कहना है कि राजीव रत् योजना के मकान तैयार हैं, फिर मकान खुद तो चलकर रहने वाले गरीब लोगों तक जाने से रहे।

उसमें रहने वालों को खुद चलकर, अपना सामान ढोकर वहां रहने के लिए आना होगा। वैसे हमने गरीबों को अगर मकान बनाकर नहीं दिए तो उन्हें फुटपाथ पर सोने से भी तो मना नहीं किया है, जहां पर उन्हें सोने दिया जा रहा है, उसकी कीमत अगर सोने से भी मापी जाए तो कई किलो में बनेगी, गरीबों की तो भली चलाई, यह सुविधा भिखारियों को भी उपलब् है, इस अधिकार पर दिल्ली की पुलिस भी अमूमन उन्हें तंग नहीं करती है।

जहां तक सपने दिखाने की बात है, वे पूछती है कि गरीबों को सस्ते घर के रस्ते का सपना दिखाना कब से अपराध की श्रेणी में गया है। अब क्या सपने देखने-दिखाने पर भी फांसी दी जाएगी और इसे भी लोकायुक् के अधिकारों के दायरे में लाया जाएगा।

वे आगे बतला रही हैं कि जहां तक विभिन् सभाओं और मीडिया के जरिए सब्जबाग दिखलाने का मामला है, तो यह बिल्कुल झूठ है। पब्लिक ने जरूर सब्जीमंडी में या सब्जी बेचने वालों के पास सब्जियां देख ली होंगी। यह भी हो सकता है कि टीवी पर देख ली हों और वे उन्हें देखकर बाग बाग हो रहे होंगे। इसलिए इन्हें सब्जबाग समझ रहे हैं।

मैंने बाग दिखलाए हैं और सब्जियां, इसलिए यह आरोप तो तथ् से कम से कम 50 किलोमीटर तो दूर ही है। अगर आपको यह पास लग रहा है तो इसमें टीवी का ही दोष है। इसमें मैं दोषी कैसे हुई जबकि दिल्ली सरकार का कोई चैनल ही नहीं है।

लोगों को गुमराह करने की बात पर उनका कहना है कि भला कोई किसी सड़क या रास्ते को गुम कर सकता है। राहों को उठाकर कहीं और छिपा दिया जाए या उन्हें अंगूठी पहनाकर फिल् वाली मिस्टर इंडिया बना दिया जाए। यह जरूर हो सकता है कि जब खूब बरसात हो रही हो तो सड़कें पानी में नहा रही होंगी और लोग सोच रहे होंगे कि सड़कें गुम हो गई हैं या बारिश से बचने के लिए कहीं छिप गई हैं, जबकि वे डूब डूब कर स्नान कर रही होती हैं।

क्या टब स्नान का मजा सिर्फ इंसान को ही लेने का हक है, सड़कें पानी में गोते मार मार कर नहाने का आनंद क्यों नहीं ले सकतीं। वैसे इस मामले में राजनीति हावी है। जिसके चलते कभी भ्रष्टाचार, कभी खेलों में भ्रष्टाचार, कभी काले धन का भ्रष्टाचार, कभी बम फोड़ने में भ्रष्टाचार और अब तो हद हो गई कि मैंने चुनावों में जो वायदे किए उनको भी भ्रष्टाचार बतलाया जा रहा है।

आजकल आम का मौसम है। कच्चा आम बहुतायत में बाजार में मिल रहा है। इस समय यह तो कर नहीं रहे कि दस-पचास किलो कच्चा आम खरीद कर उसका अचार बना लें। सिर्फ भ्रष्टाचार का ही शोर मचा रहे हैं। इस तरह के शोर से पेट नहीं भरा करते। आम का अचार, आम पब्लिक अगर बना ले तो महंगी सब्जियां खरीदने से राहत मिलेगी। अब इसमें कोई यह सोचे कि मेरे आम के बाग हैं, इसलिए मैं आम का अचार बनाने के लिए कह रही हूं तो सोचते रहें, अचार नहीं बनायेंगे तो फिर मौका नहीं मिलेगा और पछतायेंगे। फिर अचार महंगा खरीद कर खाएंगे और मुझे ही दोषी ठहरायेंगे।

देश मुंबई बम कांड के दोषियों की तलाश में लगा है, और ये मेरी कथनी में नुक् निकालने में बिजी हो रहे हैं। इन्हें अब याद आई है। याद आई और एक दम से हमला बोल दिया है। पहले क्या ये होमवर्क कर रहे थे। अगर ये समय से आपत्ति करते तो मैं भी समय से बतला ही देती। जैसे अब बतला रही हूं तो दोष तो इनका ही हुआ श्रीमन्।

लोकायुक् को अन्ना और रामदेव ने थोड़ी सी अहमियत क्या दे दी, वो तो खुद को खुदा समझने लग गए हैं। हर कोई मुंह उठाए वहीं पहुंच रहा है, जबकि आज के माहौल में खुदा भी खुद को खुदा समझने-मानने से परहेज करता है क्योंकि खुदाई का शब् ध्यान में आते ही सड़कों की खुदाई याद आने लगती है। इसे लोगों को याद करानाउनके पीले जख्मों को हरा करना और टाइट जख्मों को पिलपिला करना है, जिससे उसमें मवाद का अहसास होता रहे और जहां मवाद होगा, वहां दर्द तो होगा ही पर यह दर्द कड़वा तीखा नहीं, मीठा मीठा ही है, शहद नहीं तो क्या हुआ, नमकीन भी तो नहीं है।

फिर क्यों लोकायुक् चिंतित हो रहे हैं ?

10 टिप्पणियाँ:

सार्थक एवं सटीक लेखन ।

सार्थक एवं सटीक लेखन ।

लोकायुक्‍त को अन्‍ना और रामदेव ने थोड़ी सी अहमियत क्‍या दे दी, वो तो खुद को खुदा समझने लग गए हैं। हर कोई मुंह उठाए वहीं पहुंच रहा है, जबकि आज के माहौल में खुदा भी खुद को खुदा समझने-मानने से परहेज करता है क्‍योंकि खुदाई का शब्‍द ध्‍यान में आते ही सड़कों की खुदाई याद आने लगती है।

बढ़िया

करारा और सटीक व्यंग्य बहुत खूब .....

सार्थक और सटीक व्यंग्य

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