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गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011

मुर्दा नाचा



कल के उस फिल्मी दौर को,

याद करने से दुख होता है कि

हम आज कहाँ हैं ?

समाज का वह दर्पण जिसे

फिल्मी साहित्य के नाम से जानते हैं,

आज बाजारु हो गई है,

जिज्ञासा को परत दर परत ,

नोंच-नोंच कर आवरण रहित कर दिया है,

अर्धनग्नता की कामुता को,

नग्नता ने अश्लील बना दिया है।

हीरो व विलेन में अन्तर उतना ही बचा है,

जितना हीरोइन व कैबरे डाँसर में रह गया है।

गानों के वे वर्णछंद राग व वे चित्रण,

अब नहीं मिलते,

जिसमें कविता का आनंद था,

साहित्य का भी मान था,

राग की सलिलता थी,

और चित्रण, भावों को

आपस में बाँधने वाला माध्यम।
 
इससे हर तरह से आनंदमय

वातावरण बन जाता था।

सभी पारिवारिक सदस्यों के साथ

फिल्म देखने का,

एक अनूठा आनंद था,


अब या तो प्रेमी प्रेमिका,

या फिर पति पत्नी ही फिल्म को ,

साथ बैठ कर देख सकते हैं,

कॉलेज से भाग कर जाने वाले

छोरे छोरियों की छोड़ो,

दलों का मजा लेने वाले,

दलदल में भी खुश रहते हैं.


और कोई पारिवारिक सदस्य गर

साथ साथ फिल्म देखें तो-

क्या होगा ..

शायद भगवान भी

जानना नहीं चाहेगा।

गीत के बोल बातूनी,

छंद-लय की कहा सुनी, सुनी

ताल, बेताल के,

और साज होगा जाज,

तारतम्यता लुप्त,

तौहीन साहित्य का,

सुप्तावस्था भी नयन फोड़,

खड़ी हो जाती है।


उन पुरीने गीतों की,

उनके लय की,

मधुरता और प्रवाह,

मानसिक शांति देती है,

और तन मन को तनाव मुक्त कर,

शवासन प्रदान करती है।


और आज ?


शायद मरघट पर,

आज के गीत बजाए जाएँ तो,

मुद भी खड़े होकर नाचने लगेंगे।
......................................

2 टिप्पणियाँ:

बहुत सटीक अभिव्यक्ति...

तौहीन साहित्य का,

सुप्तावस्था भी नयन फोड़,

खड़ी हो जाती है।

बहुत बढिया,ढ़ेरों बधाई ।

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