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बुधवार, 1 जून 2011

हम हैं, मोबाईल जैसे । PART -1

हम  हैं, मोबाईल जैसे । 
PART -1
सौजन्य-गूगल


 " कभी यहाँ, कभी वहाँ, हम तो हैं मोबाईल जैसे..!!
  कभी  तेरे, कभी उसके,हम तो है मोबाईल जैसे..!!"


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प्यारे दोस्तों,

एक ही गाँव में,एक ही गली में पले-बड़े हुए और साथ-साथ खेले, बचपन के मेरे दो मित्र, अचानक रास्ते में मुझे मिल गए । साथ में चाय-पानी करने के बाद एक दोस्त ने,मुझे कहा,"अच्छा तो हम चलते हैं दोस्त, हम तो मोबाईल जैसे हैं, मिलते रहेंगे..!!"

मैंने दूसरे मित्र से पूछा," ये `मोबाईल जैसा` कथनाश्रय का सही मतलब क्या है?"

जवाब मिला," छोड़ना या..र..!! हमें इस से क्या लेना-देना?"

हालांकि,`मोबाईल जैसा` कथनाश्रय का सही अर्थ जानने के लिए मैं तो बेताब हो गया..!!

घर पहुँचते ही, मैंने अर्धांगिनी से पूछा," अभी-अभी मुझे किसी ने,`हम तो हैं मोबाईल जैसे` कहा था, इसका क्या मतलब?"

संशयात्मक स्वर में पत्नी ने पूछा," वो कौन थीं?"

"कौन थीं नहीं? था..था..था..? अपनी ही जाति का, बचपन का, मेरा दोस्त था..!!"

"क्या नाम है उनका?"

"जाने दे, तुम उसे नहीं जानती..!! बहुत सालों बाद मिला ।"

" उनके पास मोबाईल है?"

 "शायद..!! हाथ में मोबाईल जैसा कुछ देखा तो था?"

" आपने उनका नंबर लिया?"

" हाँ, उसने अपना विज़िटिंग कार्ड दिया तो है..!!"

" अगर वह अपनी जाति का है तो फिर, उसे  पूछो ना?"

" तुम मोबाईल जैसे क्यूँ  हो, ऐसा किसी से, थोड़े ही ना पूछा जाता है?"

" नहीं..नही, वह अपनी जाति का है ना? तो मेरी भाँजी के लिए, ढंग का कोई रिश्ता हो तो, उसे  पूछो ना?"
 
"तुम भी ना या..र..!! बात को कहाँ से कहाँ ले गई?"

क्या बताउं..!! मेरी पत्नी अक्सर ऐसा ही करती है ।

हालाँकि, मोबाईल जैसे इन्सान का संभावित अर्थ तलाशते-तलाशते, संभावित दामाद तलाशने का व्यायाम शुरु करने का मेरा कोई इरादा नहीं था, अतः  मैं  मौन हो  गया..!! मगर इस विषय पर, मेरा गहन चिंतन जारी रहा..!!

मैं सोचता हूँ, मेरा मित्र अगर मोबाइल ऐसा है तो, क्या उसे ऑल्ड मॉडल का मोबाईल मानना चाहिए? पर, चालीस साल पहले, हमारे जन्म के समय तो, मोबाईल का आविष्कार ही नहीं हुआ था..!!

अरे..या..र..!! समस्या इतनी भारी हो गई थीं कि, गहन सोच के कारण मैं सारी रात करवट बदलता रहा ।

दूसरे दिन, सुबह-सुबह मोर्निंग वॉक करते समय, बदकिस्मती से यही सवाल, एक आध्यात्मिक आस्थावाले साहित्यकार से,  मैंने  पूछ लिया । उन्हों ने मेरी आँखों में आँखे डालकर मुझे समझाया,

"तुम्हारे इस मोबाईल जैसे मित्र, पिछले जन्म में अवश्य संत रहे होंगे..!!"

मैंने पूछा, " क्यों,आप ऐसा क्यों कहते हैं?"

"हमारे आदि जगदगुरू श्रीशंकराचार्यजी ने कहा है कि,जगत में ब्रह्म एक ही है,अर्थात् मैं ही ब्रह्म हूँ । जिस प्रकार मोबाईल के नित नये मॉडल बाज़ार में आते रहते हैं पर, उसका प्रमुख कार्य सब के संवाद वहन करना होता है..!! इसी प्रकार इन्सान भी मोबाईल के कई मॉडल कि भाँति, माता-पिता-सखा-मालिक-नौकर जैसे कई अलग-अलग रूप धर कर, सभी के साथ, एक ही समय पर, अलग-अलग संवाद साधता है..!! आया कुछ समझ में?"

चेहरे पर नकारात्मक भाव धर कर, मगर मेरी मूँड़ी सकारात्मक भाव से हिलाता हुआ, वहाँ से मैं चल दिया..!!

अब मैंने तय कर लिया कि, इस प्रश्न का हल मैं खुद ढ़ूंढूंगा..!!

मानो, ऐसा निश्चय करते ही, मुझे असीम ज्ञान प्राप्त हुआ हो, मेरा उत्तर मुझे मिल ही गया..!!

हाँ, सचमुच,इन्सान मोबाईल जैसा ही होगा क्योंकि..!!

* मोबाईल में भी, कभी-कभी जैसे रोंग नंबर लग जाता है, इसी तरह ज़िंदगी में हमें अचानक,अनपेक्षित और बिना वजह, कई लोग टकरा जाते हैं?

* मोबाईल के माफिक इन्सान का स्वभाव भी घूमते-फिरतेराम जैसा नहीं है क्या?

* मोबाईल नंबर के माफिक इन्सान भी किसी ना किसी वजह से, स्थानांतर कर के,अपना  ऍड्रेस बदलता  रहता हैं ना?

* मोबाईल में जिस तरह वायरस घुस जाता है, इसी तरह इन्सान  भी कभी ना कभी, लोभ-लालच-मोह-माया के शैतानी वायरस से ग्रस्त हो जाता है ना?

* मोबाईल फोन की डायरेक्टरी मोबाईल कंपनी के पास होती है,  इसी प्रकार इन्सान की डायरेक्टरी,जनगणना द्वारा सरकार के पास होती है..!!

* मोबाईल में किसी भी इन्सान की बातचीत,अगर रास न आए तो, फोन बीच में ही काट दिया जाता है, इसी प्रकार किसी के साथ अन -बन होते ही, इन्सान एक दूसरे से, तुरंत संबंध विच्छेद कर देता हैं ?

* पुराने मॉडल के मोबाईल को कुत्ते भी नही सूँघते,इसी प्रकार जेनरेशन गेप के नाम पर, बड़े- बुजुर्ग के सामने एक नज़र करने को भी कोई तैयार नहीं होता?

* मोबाईल में अनेक विन्डॉ होती है, इन्सान के मन में भी कई ऐसी विन्डॉ होती है,जहाँ ज़िंदगीभर वह खुद भी पहुँच नहीं पाता है..!!

वैसे इन्सान के जीवन में सारी समस्याएं, मन की अज्ञात विन्डॉज़ तक पहुंचने की असमर्थता के कारण ही पैदा होती  है..!!

शायद इसीलिए `गर्ग उपनिषद` में कहा गया है ।

"यः वा  एतद् अक्षरम् गार्गि अविदित्वा ।
अस्मात्  लोकात् प्रैति सः कृपणः ॥"


अर्थात् - जो मनुष्य, सच्चे मानव की तरह जीवन की समस्याओं का निवारण नहीं करता और आत्म साक्षात्कार के विज्ञान को जाने बिना ही, कुत्ते बिल्ली की मौत, मर कर इस दुनिया से विदा होता है, वह `कृपण` है ।

दोस्तों,मुझे लग रहा है, इन्सान मोबाईल जैसा है कि नहीं, ये बात भले ही विवादित हो, पर मोबाईल हूबहू इन्सान जैसा ही है ये बात अवश्य निर्विवाद सत्य है क्योंकि,

* जिस प्रकार इन्सान को,ग़लत जगह, ग़लत बात में, अपनी टाँग अड़ा कर, अप्रिय बकवास कर के, किसी दूसरे की इज़्ज़त उछालने की बूरी आदत होती है, इसी प्रकार मोबाईल भी समय और स्थान देखे बिना, कहीं भी टोकरी बजा कर, सार्वजनिक क्षोभ और अपराध भाव उत्पन्न कराता है..!!( जैसे की,पत्नी की उपस्थिति में प्रेमिका की रिंग?)

* जिस प्रकार समाज में अमीर-ग़रीब का भेद होता है,इसी प्रकार मोबाईल समाज में भी महँगे और सस्ते (चाईनीझ?) का भेद होता है..!!

* जिस प्रकार इन्सान` अभी बोला,अभी रद्द कर दिया` व्यवहार अपनाता है, इसी तरह मोबाईल धारक `आज ये कंपनी- ये नंबर; कल वो कंपनी- वो नंबर` बदलता रहता है..!!

* इन्सान जिस प्रकार गिरगिट की भाँति बार-बार अपना रंग बदलता रहता है,इसी प्रकार मोबाईल भी अनेक रंग के आवरण चढ़ा कर नित नया रूप धारण करता है..!!

* जिस तरह इन्सान की जेब अक्सर खाली हो जाती है,इसी तरह मोबाईल का बैंलेन्स भी अक्सर शून्य हो जाता है..!!

* और अंत में, इन्सान और मोबाईल के निर्माता द्वारा तय की गई आयु समाप्त होते ही, दोनों की बैटरी डाउन हो कर, उनका `राम नाम सत्य है` हो जाता है..!!

सारा दिन मोबाईल अपने कान पर चिपका कर, समय के अभाव का रोना रोने वाले, तमाम पतिदेवों की, तमाम पत्नीदेवीओं को `ओशो वाणी` याद रखनी चाहिए..!!

"बंधन या मुक्ति वस्तु में नहीं, दृष्टि में होती है ।
मुक्त होने की एक प्रक्रिया है -पूर्ण बोध ।"

और हमारी ओर से पूर्ण बोध यह है कि, हे मोबाईल सौतन से पीड़ित पत्नीदेवीओं, आप अपने पतिदेवों के कान में, मोबाईल से भी अधिक प्रेम भरी गुफ़्तगू, पूरा दिन-रात करतीं रहे, ताकि उनको मोबाईल महा माया सौतन की याद ही न आएं..!!

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दोस्तों, अब इसी आलेख के पार्ट-२ में पढ़ियेगा मोबाईल चोरी या गुम होने की समस्या और उसे खोजने के अफ़लातून उपाय, कल यहीं पर..!!

http://mktvfilms.blogspot.com/2011/06/part-1.html
 
मार्कण्ड दवे । दिनांक- ०१-०६-२०११.

6 टिप्पणियाँ:

और अंत में, इन्सान और मोबाईल के निर्माता द्वारा तय की गई आयु समाप्त होते ही, दोनों की बैटरी डाउन हो कर, उनका `राम नाम सत्य है` हो जाता है..!!

अटल सत्य !

अरे पहला भाग तो बाद मे पढ़ा ! ये भी बढ़िया रहा

* जिस प्रकार समाज में अमीर-ग़रीब का भेद होता है,इसी प्रकार मोबाईल समाज में भी महँगे और सस्ते (चाईनीझ?) का भेद होता है..!!

अच्छा लॉजिक है !

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