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रविवार, 15 मई 2011

फैशन एक नये जामे का।

पैसे बचाने की आदत
अच्छी है डियर

किंतु जब तुम

पुरानी साड़ी को फाड़कर
सीती हो मेरा अन्डरवियर
तो तुम्हारा आएडिया
बहुत बुरा लगता है

फिर भी पहन लेता हूँ

घिसी साड़ी कि वे चड्डियाँ
जो दो चार बार उठने बैठने पर ही
बोल जाती है

तिस तुम कहती हो-

"बच्चे नहीं हो
घर चलाना सीखो
भविष्य के लिये बचाना सीखो।"

अन्डरवियर तक तो बचत ठीक है
किंतु उस दिन
पड़ोसन काकी को तुमने
अपनी नई योजना सुनाई

तो क़सम से

उस रात नींद नहीं आई
तुम कह रही थी-"काकी,

गेहूँ तीन रुपये का

एक किलो बिकता है
और चावल!
स्वप्न में भी कहाँ दिखता है

सोचती हूँ

इनका एक कुर्ता
रेशमी साड़ी से निकाल दूं
किनारी वाला हिस्सा
आस्तीन और गले पर ड़ाल दूँ

साड़ी में से एक क्या दो कुर्ते निकल आएँगे
साड़ी चल चुकी है दस साल
कुर्ते भी कुछ साल चल जएँगे।"

तो हे कपड़ो की एंजीनियर

अपनी प्यारी साड़ी को
मत करना टियर
सच कहता हूँ

तुम्हारी कला के प्रदर्शन का माध्यम

मैं बनूँ
इसकी चाह नहीं
क्या बचत करने की
कोई और राह नहीं?

हे, सुनो!

पुराना पेटिकोट
जो तुम कमर मे बान्धती हो
मैं गले में बाँध लूंगा

सारा तन

उसी से ढाँक लूंगा
ख़र्च बच जायेगा
कुर्ते और पजामे का

और फैशन निकल आयेगा

एक नये जामे का।

प्रस्तुत कविता पृसिद्ध हास्य कवी श्री शैल चतुर्वदी जी की है और कविता कोष से साभार ली गयी है

8 टिप्पणियाँ:

पुराना पेटिकोट
जो तुम कमर मे बान्धती हो
मैं गले में बाँध लूंगा

आदरणीय श्रीरामलालजी, बहुत अच्छी रचनाएं ढ़ूंढ लाते हैं आप..!!
बधाई है।

मजेदार कविता पढ़वाने का आभार.

बढ़िया रचना ..एक धोती में सौ पचास चद्दीयाँ तो बन जाती होंगी...हाहा हा अह

पत्नी को भी कुछ पहनने देंगें कि नहीं।

गेहूँ तीन रुपये का
एक किलो बिकता है
और चावल!
स्वप्न में भी कहाँ दिखता है

महंगाई जो हो गयी है !

मजेदार , बहुत ही मजेदार लिखा है

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