एक बार
बरखुरदार!
एक रुपए के सिक्के,
और पाँच पैसे के सिक्के में,
लड़ाई हो गई,
पर्स के अंदर
हाथापाई हो गई।
जब पाँच का सिक्का
दनदना गया
तो रुपया झनझना गया
पिद्दी न पिद्दी की दुम
अपने आपको
क्या समझते हो तुम!
मुझसे लड़ते हो,
औक़ात देखी है
जो अकड़ते हो!
इतना कहकर मार दिया धक्का,
सुबकते हुए बोला
पाँच का सिक्का-
हमें छोटा समझकर
दबाते हैं,
कुछ भी कह लें
दान-पुन्न के काम तो
हम ही आते हैं।
यह कविता हसी कवि श्री अशोक चक्रधर की है
सुबकते हुए बोला
पाँच का सिक्का-
हमें छोटा समझकर
दबाते हैं,
कुछ भी कह लें
दान-पुन्न के काम तो
हम ही आते हैं।
यह कविता हसी कवि श्री अशोक चक्रधर की है
5 टिप्पणियाँ:
@मार्कण्ड दवे जी,
आपकी पोस्ट को बड़े ही अफसोस के साथ हटाना पड रहा है,
इस का कारण यह है की इस मंच पर आप केवेल हास्य-व्यंग्य से संबन्धित रचनाए प्रकाशित कर सकते है .....
आप आगे से इस बात का ध्यान रखे और इस मंच की स्थापना को सफल बनाए ....
ब्लॉग व्यस्थापक
रामपुरी सम्राट श्री राम लाल
रोचक! मज़ेदार।
काम का सिक्का !
Majedar Ladai hai ye to
हा हा हा मजेदार और रोचक
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