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शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

उल्लू बनाती हो?


एक दिन मामला यों बिगड़ा
कि हमारी ही घरवाली से

हो गया हमारा झगड़ा
स्वभाव से मैं नर्म हूँ

इसका अर्थ ये नहीं
के बेशर्म हूँ

पत्ते की तरह काँप जाता हूँ
बोलते-बोलते हाँफ जाता हूँ

इसलिये कम बोलता हूँ
मजबूर हो जाऊँ तभी बोलता हूँ

हमने कहा-"पत्नी हो
तो पत्नी की तरह रहो

कोई एहसान नहीं करतीं
जो बनाकर खिलाती हो

क्या ऐसे ही घर चलाती हो
शादी को हो गये दस साल

अक्ल नहीं आई
सफ़ेद हो गए बाल

पड़ौस में देखो अभी बच्ची है
मगर तुम से अच्छी है

घर कांच सा चमकता है
और अपना देख लो

देखकर खून छलकता है
कब से कह रहा हूँ

तकिया छोटा है
बढ़ा दो

दूसरा गिलाफ चढ़ा दो
चढ़ाना तो दूर रहा

निकाल-निकाल कर रूई
आधा कर दिया

और रूई की जगह
कपड़ा भर दिया

कितनी बार कहा
चीज़े संभालकर रखो

उस दिन नहीं मिला तो नहीं मिला
कितना खोजा

और रूमाल कि जगह
पैंट से निकल आया मोज़ा

वो तो किसी ने शक नहीं किया
क्योकि हमने खट से

नाक पर रख लिया
काम करते-करते टेबल पर पटक दिया-

"साहब आपका मोज़ा।"
हमने कह दिया

हमारा नहीं किसी और का होगा
अक़्ल काम कर गई

मगर जोड़ी तो बिगड़ गई
कुछ तो इज़्ज़त रखो

पचास बार कहा
मेरी अटैची में

अपने कपड़े मत रखो
उस दिन

कवि सम्मेलन का मिला तार
जल्दी-जल्दी में

चल दिया अटैची उठाकर
खोली कानपुर जाकर

देखा तो सिर चकरा गया
पजामे की जगह

पेटीकोट आ गया
तब क्या खाक कविता पढ़ते

या तुम्हारा पेटीकोट पहनकर
मंच पर मटकते

आगे जारी ....

प्रस्तुत कविता पृसिद्ध हास्य कवी श्री शैल चतुर्वदी जी की है और कविता कोष से साभार ली गयी है

9 टिप्पणियाँ:

पेटीकोट आ गया
तब क्या खाक कविता पढ़ते

या तुम्हारा पेटीकोट पहनकर
मंच पर मटकते


हा हा हा हा हा .... बहुत बढ़िया

पूरी कविता जल्दी पढ़वाइएगा ....

भाई वाह , कमाल है शैल जी की रचना

बहुत सुंदर रचना

आभार इस सुंदर कविता को पढ़वाने के लिए

आगे भी लिखे .... आगे क्या हुआ .... क्या सचमुच शैल जी नाचे ...

काबिल ए तारीफ धन्यबाद

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